न्यूज डेस्क, मंसूरचक/बेगूसराय, मिन्टू कुमार झा।।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मभूमि और बिहार केसरी डॉ.श्रीकृष्ण सिंह की कर्मभूमि बेगूसराय ने कला और रंगकर्म का भी एक से बढ़कर एक कमाल दिखाते रहे हैं। इन्हीं कला साधकों के बल पर बेगूसराय का मंसूरचक कभी मूर्तिकला के लिए देश-विदेश भर में प्रसिद्ध रहा है।मंसूरचक की टेरीकोटा मूर्तिकला आज भी चर्चित है। लेकिन आधुनिकता के चकाचौंध ने प्लास्टिक से बनी और अन्य विदेशी मूर्तियों ने यहां के कला को किनारे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। जिसके कारण अब नई पीढ़ी इस कला को बचा पाने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं। जो पुराने कलाकार हैं,वह आज भी पूरी तल्लीनता से मूर्ति निर्माण करते हैं।
लेकिन सरकारी उपेक्षा और बाजारवाद का यही हाल रहा तो जल्द ही यह कला विलीन हो जाएगी। मिट्टी के कलाकारों का जादू नगरी कहा जाने वाला मंसूरचक उदास हो जाएगा। पूंजी का अभाव,महंगी मिट्टी, बाजार की कमी,प्लास्टिक उद्योग के बढ़ते प्रभाव और सरकारी सहयोग नहीं मिलने के कारण मंसूरचक की प्रसिद्ध मूर्ति निर्माण कला की दो सौ वर्ष से अधिक पुरानी परंपरा दम तोड़ रही है।बच्चों के लिए तरह-तरह मुखौटा बनाने वाले मूर्तिकार आज बदहाली की स्थिति में हैं।
मंसूरचक के मूर्तिकारों की पहचान बिहार के अलावा पश्चिम बंगाल,उड़ीसा,झारखंड, महाराष्ट्र,उत्तर प्रदेश,मध्यप्रदेश से लेकर नेपाल तक थी। एक समय था जब मिट्टी से निर्मित गणेश-लक्ष्मी,शंकर,पार्वती, सरस्वती,दुर्गा,काली, राम-जानकी,छठ माता की मूर्ति के अलावा तरह-तरह के खिलौने एवं मुखौटे की मांग ज्यादा हुआ करती थी। कारीगरों को सम्मान के साथ अच्छा पारिश्रमिक भी मिलता था।पश्चिम बंगाल,उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश,जम्मू-कश्मीर से लेकर नेपाल तक के व्यापारियों का तांता लगा रहता था।
एक तरह से कहें तो मंसूरचक गांव,गांव कम जादू नगरी ज्यादा है। इसके बाजार के सड़क के दोनों किनारे विविध प्रकार की मूर्तियां,पक्की मिट्टी से निर्मित रंग-बिरंगे खेल-खिलौने यहां की लोकप्रिय कला और टेरीकोटा कला के अद्भुत चमत्कार हैं। दुर्गा पूजा और सरस्वती पूजा के समय यह कलाकार विभिन्न राज्यों में जाकर अपनी कलात्मकता दिखाते हैं।
यहां के बच्चे,बूढ़े,स्त्री,पुरुष सभी कलाकार हैं तथा इनकी कलात्मकता रंगों की समझ और मिट्टी की परख तथा टेरीकोटा कला का बेजोड़ नमूना मंसूरचकिया शैली को विशिष्ट बना देती है। कभी इसी बलान नदी के तट पर बसे खेतों में अंग्रेजों ने नील की खेती करवाई थी और अपने शोषणकारी रवैया से मंसूरचक वासियों के जीवन को फीका कर दिया था। लेकिन आज यहां घर-घर में कला की खेती होती है।यहां के कलाकार मिट्टी से बनी मूर्तियों में अपनी कूचियों से निर्जीव सूरत में भी जीवन के रंग भर देते हैं तो लगता है कि मूर्तियां अब बोल उठेगी। लेकिन लगता है कि दम तोड़ती बलान नदी की तरह ही इसके तट पर विकसित हुई मंसूरचक की कला बहुत जल्द दम तोड़ देगी।
कलाकार कहते हैं कि अब इसमें परिवार का गुजारा नहीं होता है। हमारी नई पीढ़ी इस काम को आगे बढ़ाना नहीं चाहते हैं।इनके लिए इसमें कोई आकर्षण नहीं है,सिर्फ पेट-भात की कला से इन्हें रोका नहीं जा सकता है। हमारा मुकाबला प्लास्टिक की मूर्तियों और खिलौनों से है,जिसके कारण मैदान में हम टिक नहीं पा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लोकल को वोकल बनाने तथा स्थानीय कला को बढ़ावा देने के लिए अधिकारियों एवं समाज को प्रेरित कर रहे हैं। लेकिन समाज और सब के सब हमारे प्रति उदासीन हैं। इनकी कला सिर्फ धरोहर नहीं है,पूरे समाज की विरासत है,जिसे बचाने वाला कोई नहीं है।
कलाकार रमेश पंडित,मदन पंडित,कुशेश्वर पंडित,दीनदयाल पंडित,जवाहरलाल पंडित, दुखनी देवी,कौशल्या देवी एवं रीता देवी आदि कहते हैं कि हम लोग आज भी मूर्तिकला का बेजोड़ नमूना प्रस्तुत कर रहे हैं। लेकिन अब ग्राहक कम आ रहे हैं, किसी प्रकार की कोई सरकारी मदद नहीं मिल रही है, जिसके कारण हमारा परिवार चलना मुश्किल होता जा रहा है। हम अपनी कला के साथ जीना चाहते हैं, लेकिन जी नहीं पा रहे हैं।विरासत के प्रति लगाव के कारण बड़े बुजुर्गों अपनी कला को निभा रहे हैं लेकिन यह कलात्मक हुनर इन्हीं के साथ मर जाएगा। कला की सांस्कृतिक विरासत को बचाने की जद्दोजहद कर रहे कलाकारों को निर्माण और प्रदर्शनी के लिए सस्ते दर पर ऋण और बाजार की सुविधा दी जाए तो एक बार फिर से इनका कमाल राष्ट्रीय स्तर पर दिखना शुरू हो जाएगा।